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विशेष : बड़े संकल्प का दिन है विश्व आदिवासी दिवस

अपने ही राज्य में अनसुनी की जा रही आदिवासियों की आवाजें

अधिकार और सम्मान के लिए और कब तक संघर्ष ?

● कब खत्म होगा पूंजीपतियों और कंपनियों का शोषण ?

आमंत्रित आलेख : आदित्य

रांची/रामगढ़ : कल पूरी दुनिया विश्व आदिवासी दिवस मनायेगी। यह देश और दुनिया के तमाम आदिवासी भाई-बहनों के गौरवशाली अतीत और समृद्ध संस्कृति के लिए नत मस्तक होने और हर्षित होने का दिवस है। वीर आदिवासी महापुरुषों की भूमि झारखंड के लिए यह खासा उत्साहित होने का दिन है। यहां छह वर्ष तक राज्पाल रही आदिवासी मूल की द्रौपदी मुर्मू आज देश के सर्वोच्च पद पर विराजमान हैं। आदिवासी समाज के लोग आज हर क्षेत्र में अपनी क्षमता और योग्यता का डंका बजा रहे हैं। प्रशासनिक सेवाओं से लेकर शिक्षा, साहित्य, खेल-कूद सहित हर क्षेत्र में जनजातीय समाज के लोग आगे की पंक्ति में दिख रहे हैं। विश्व आदिवासी दिवस पर पूरे राज्य में उत्सव का माहौल होगा।

लेकिन क्या ये उन आदिवासी रैयतों के लिए भी इतने उत्साह का दिवस होगा जो विस्थापित होकर पूंजीपतियों-कंपनियों द्वारा वर्षों से छले जा रहे हैं और जिनकी समस्या की उनके अपने ही राज्य में अनदेखी हो रही है। क्या जनजातीय समाज के लिए न्याय पाने की खातिर आंदोलन ही एकमात्र विकल्प रह गया है। राज्य अपना, सरकार अपनी, फिर भी इनकी आवाज किसी के कानों में क्यों नहीं पड़ती। सरकार और प्रशासन क्यों एकतरफा पूंजीपतियों के साथ खड़ी दिखती है।

औद्योगिक क्षेत्र पतरातू में विकास ने नाम सिर्फ कंपनियों की चिमनियां खड़ी हुई। यहां का बहुसंख्यक जनजातीय समाज कभी एक साथ खड़ा नहीं हो सका और न ही यहां के बड़े जनप्रतिनिधि कभी मुखरता से इनके साथ खड़े हो सके। यहां के रैयतों में बड़ा तबगा गरीब आदिवासियों का भी है। जो आज बदहाली को ओर धकेले जा रहे हैं।

पतरातू प्राकृतिक संपदाओं से समृद्ध क्षेत्र है। इसलिए विकास के नाम पर लाभ कमाने के उद्देश्य से कई कंपनियां यहां स्थापित की गयी। रैयतों की जमीनें मनमाने तरीके से ले ली गई। कई जगह फर्जीवाड़ा और जबरन जमीन लेने की बातें आज भी सामने आती हैं। मुआवजे और नौकरी के लिए वर्षों बाद आज भी लोग चीख रहे हैं। सबकुछ गवां कर कई आदिवासी परिवारों के पलायन की बात भी कही जाती है। युवा मजबूरी में घर-बाड़ी छोड़ बड़े शहरों में मजदूरीं करने जा रहे हैं। धार्मिक स्थलों पर भी कब्जे जैसा दुष्प्रयास हो जाता है।यहां इतनी कंपनियां स्थापित हैं कि सिर्फ सीएसआर से इतने वर्षों में क्षेत्र की तस्वीर बदल जानी चाहिए थी। आज बदहाली पांव पसार रही है। आनेवाला समय निश्चित रूप से यहां के गरीब रैयतों के लिए कठिन और संघर्ष भरा होगा। 

चर्चा है कि पतरातू की बड़ी और एक निजी कंपनी में कुछेक स्थानीय तथाकथित नेता ही बिचौलिया बने हुए हैं।  रैयत-विस्थापितों का अधिकार कैसे छीना जाए इसकी सीख प्रबंधन को दे रहे हैं। आंदोलन को कैसे दबायें, आंदोलनकारियों में फूट कैसे डालें, प्रशासनिक अधिकारियों का उपयोग कैसे करें और कंपनी से जुड़े मुद्दों पर मीडिया मैनेज कैसे करें इसपर रणनीति बनती है। कहीं से आंदोलन की सुगबुगाहट होती नहीं है कि कंपनी में महंगे दारू और खस्सी मुर्गा पार्टी का दौर शुरू हो जाता है। इसमें स्थानीय स्तर पर कौन -कौन शामिल होते हैं, यह कंपनी का सीसीटीवी बेहतर बता सकता है।

इधर, रैयतों के नाम पर एक ओर सीसीएल प्रबंधन के सामने लंगोट बांधकर ताल ठोकते एक तथाकथित नेता की निजी कंपनी के सामने घिग्गी बंध जाती है। हर माह मिलते नोटों की गड्डियों का मोह नैतिकता और मानवता पर भारी पड़ जाता है। 

चर्चा है कि पतरातू के बलकुदरा सहित आसपास के बड़े इलाके में जमीन अधिग्रहण और खरीद-फरोख्त विवादों में चला आ यहा है। फर्जीवाड़े और धोखे की बातें भी सामने आती रही हैंं

कई बार प्रशासनिक स्तर पर बैठकों के बावजूद समस्या का समाधान नहीं हो सका। इधर कई  रैयत-विस्थापित लगातार जॉब कार्ड होने के बावजूद कंपनी द्वारा नौकरी नहीं दिये जाने का आरोप लगा रहे है। इस ओर भी सरकार और प्रशासन आंखें मूंदे बैठी है।

बताया जाता है कि लाचारी में आंदोलन करनेवाले इन्हीं रैयतों को केस मुकदमों में डालकर विधि-व्यवस्था के लिए संकट बता दिया जाता है। आंदोलन छोड़ने या जेल जाने का एकमात्र विकल्प छोड़ दिया जाता है। 

 

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