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138 साल में पहली बार दुर्गा बाटी के पारंपरिक मेड़ पर नहीं बनेंगी प्रतिमाएं, कंधे की जगह ठेले पर रखकर होगा विसर्जन

  • एक मेड़ में बनती हैं मां दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, कार्तिकेय व गणेश की प्रतिमांए
  • छोटे आकार का नया मेड़ तैयार किया गया है

रांची की दुर्गा पूजा में समय के साथ कई परिवर्तन हुए हैं। बड़े-बड़े और भव्य पंडाल व आकर्षक मूर्तियां बनने लगी हैं। वहीं 1883 में शुरू हुई श्रीश्री हरिसभा दुर्गा बाटी की पारंपरिक पूजा में कोई बदलाव नहीं आया। लेकिन कोविड-19 के कारण 138 साल के इतिहास में पहली बार यहां परिवर्तन दिखेगा। इस बार यहां प्रतिमाएं पारंपरिक एक मेड़ (चाला) में तैयार नहीं होंगी बल्कि इसकी जगह छोटे आकार का नया मेड़ तैयार किया गया है। जिस तरह पूर्व में एक ही मेड़ में मां दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, कार्तिकेय और गणेश की मूर्तियों को मिट्टी से तैयार किया जाता है। उसी प्रकार इस बार भी सभी प्रतिमाएं बनेंगी, फर्क सिर्फ इतना होगा कि इनका आकार छोटा होगा।

12 की जगह 5 फीट के मेड़ में स्थापित होंगी प्रतिमाएं
दुर्गा बाटी के सह-सचिव श्वेतांको सेन कहते हैं कि शुरू से दुर्गा मां की मूर्ति एक ही मेड़ पर बनती आई है। इसकी चौड़ाई 12 और लंबाई 11 फीट रहती है। इस बार मेड़ की चौड़ाई 5 व लंबाई 6 फीट है। विसर्जन के दौरान कोरोना के कारण लोग कंधे पर मां को नहीं उठा पाएंगे, इसलिए मूर्ति छोटी होगी और उसे ठेले पर रखकर ले जाया जाएगा। विसर्जन के लिए यहां प्रतिमा को 25 फीट की तीन बल्लियों पर रखा जाता था, जिसे सैकड़ों लोग उठाकर लाइन तालाब ले जाते थे।

विसर्जन के बाद चडरी के लोग सुरक्षित लाते हैं मेड़
प्रतिमा के विसर्जन के बाद मेड़ को किनारे रस्सी से बांधकर रख दिया जाता है। कुछ दिनों बाद उसे चडरी के लोग, जिसमें आदिवासी भी शामिल होते हैं, उसे उठाकर दुर्गा बाटी पहुंचाते हैं।

मेदिनीपुर से आते हैं प्रधान पुजारी, बांकुड़ा से ढाक वाले
दुर्गा बाटी के प्रधान पुजारी शांतनु भट्टाचार्य गोवालतोर, प. मेदिनीपुर से व अन्य पुजारी हावड़ा, बांकुड़ा से आते हैं। मूर्तिकार वीरभूम से आते हैं। ढाक वाले आएंगे या नहीं, यह अभी तय नहीं हुआ है।

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