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बिना कुशा के अधूरी मानी जाती है पितरों की पूजा, जानें क्या है

अजय चौरसिया

चतरा: श्राद्ध व जप-तप में कुशा का अधिक महत्व माना गया है। खास कर इसके बिना तर्पण अधूरा माना जाता है। कुशा की अंगूठी बनाकर तीसरी उंगली में पहनी जाती है जिसे पवित्री कहा जाता है। पितृ पक्ष के दिनों में लोग पितरों के लिए श्राद्ध, तर्पण और पिंडदान जैसे शुभ कार्य करते हैं। मान्यता है कि जो लोग अपने पितरों के लिए पुण्य कर्म करते हैं उनके घर में हमेशा शांति और सुख-समृद्धि का वास होता है। भारतीय धर्मशास्त्र और कर्मकांड के अनुसार पितर देव स्वरूप होते हैं। इस पक्ष में पितरों के निमित्त दान, तर्पण, श्राद्ध के रूप में श्रद्धापूर्वक जरूर करना चाहिए। पितरों का कर्ज चुकाना एक जीवन में तो संभव ही नहीं हो पाता लेकिन उनके द्वारा संसार त्याग कर चले जाने के बाद भी श्राद्ध करते रहने से उनका ऋण चुकाया जा सकता है। वेदों और पुराणों में कुशा को पवित्र माना गया है। इसे कुश, दर्भ या डाभ भी कहा जाता है। मत्स्य पुराण के अनुसार भगवान विष्णु के वराह अवतार के शरीर से कुशा बनी है।
हिंदू धर्म के अनुष्ठान और पूजा-पाठ में कुशा का इस्तेमाल किया जाता है। पितृपक्ष में श्राद्ध के दौरान कुशा का उपयोग जरूरी है। इसके बिना तर्पण अधूरा माना जाता है। कुशा की अंगूठी बनाकर तीसरी उंगली में पहनी जाती है जिसे पवित्री कहा जाता है। ग्रंथों में बताया गया है इसके उपयोग से मानसिक और शारीरिक पवित्रता हो जाती है। कुशा का उपयोग सूर्यग्रहण व चन्द्रग्रहण के समय भी किया जाता है। ग्रहण से पहले खाने-पीने की चीजों में कुशा डाली जाती है। ग्रहण काल के दौरान खाना खराब न हो और पवित्र बना रहे, इसलिए ऐसा किया जाता है।

इसका इस्तेमाल दवाइयों में भी किया जाता है

अथर्ववेद में कुशा के लिए कहा गया है कि इसके इस्तेमाल से गुस्से पर कंट्रोल रहता है। इसे अशुभ निवारक औषधि भी कहा जाता है। चाणक्य के ग्रंथों से पता चलता है कि कुशा का तेल निकाला जाता था और उसका उपयोग दवाई के तौर पर किया जाता था। मत्स्य पुराण का कहना है कि कुशा घास भगवान विष्णु के शरीर से बनी होने के कारण पवित्र मानी गई है। मत्स्य पुराण की कथा के अनुसार भगवान विष्णु ने वराह अवतार लेकर हिरण्याक्ष का वध कर के पृथ्वी को स्थापित किया था। उसके बाद अपने शरीर पर लगे पानी को झाड़ा तब उनके शरीर से बाल पृथ्वी पर गिरे और कुशा के रूप में बदल गए। इसके बाद से कुशा को पवित्र माना जाता है। महाभारत के अन्य प्रसंग के अनुसार, जब गरुड़देव स्वर्ग से अमृत कलश लेकर आए थे तो उन्होंने वह कलश थोड़ी देर के लिए कुशा पर रख दिया था।

कुशा पर अमृत कलश रखे जाने से कुशा को पवित्र माना जाने लगा

महाभारत के आदि पर्व के अनुसार राहु की महादशा में कुशा वाले पानी से नहाना चाहिए। इससे राहु के अशुभ प्रभाव से राहत मिलती है। इसी ग्रंथ में बताया गया है कि कर्ण ने अपने पितरों के श्राद्ध में कुशा का इस्तेमाल किया था। इसलिए कहा गया है कि कुशा पहनकर किया गया श्राद्ध पितरों को तृप्त करता है। ऋग्वेद में बताया गया है कि अनुष्ठान और पूजा-पाठ के दौरान कुश के आसन का इस्तेमाल होता था. बौद्ध ग्रंथों के अनुसार बोधि वृक्ष के नीचे बुद्ध ने कुशा के आसान पर बैठकर तप किया और ज्ञान प्राप्त किया था। श्री कृष्ण ने कुशा के आसन को ध्यान के लिए आदर्श माना है।

कुशा का आध्यात्मिक महत्व

माना जाता है की पूजा-पाठ और ध्यान के दौरान हमारे शरीर में ऊर्जा पैदा होती है। कुशा के आसन पर बैठकर पूजा-पाठ और ध्यान किया जाए तो वो उर्जा पैर के जरिए जमीन में नहीं जा पाती है। इसके अलावा धार्मिक कामों में कुशा की अंगूठी बनाकर तीसरी उंगली में पहनने का विधान है ताकि आध्यात्मिक शक्ति पुंज दूसरी उंगलियों में न जाए। रिंग फिंगर यानी अनामिका के नीचे सूर्य का स्थान होने के कारण यह सूर्य की उंगली होती है। सूर्य से हमें जीवनी शक्ति, तेज और यश मिलता है। दूसरा कारण इस ऊर्जा को पृथ्वी में जाने से रोकना भी है। कर्मकांड के दौरान यदि भूल से हाथ जमीन पर लग जाए, तो बीच में कुशा आ जाती है और ऊर्जा की रक्षा होती है। इसलिए कुशा की अंगूठी बनाकर हाथ में पहनी जाती है। यह सारी जानकारी आचार्य चेतन शर्मा ने दी।

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